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________________ [ ३३ निश्चय और व्यवहार ] इसीप्रकार का भाव नागसेन के तत्त्वानुशासन में भी व्यक्त किया गया है : "अभिन्न कर्तृकर्मादि विषयो निश्चयो नयः । व्यवहारनयो भिन्न कर्तृ कर्मादिगोचरः।। जिसका अभिन्न कर्ता-कर्म आदि विषय हैं, वह निश्चयनय है और जिसका विषय भिन्न कर्ता-कर्म आदि हैं, वह व्यवहारनय है।" 'प्रात्मख्याति' में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने जो परिभाषा दी है, वह इसप्रकार है : "प्रात्माश्रितो निश्चयनय, पराश्रितो व्यवहारनयः ।। आत्माश्रित कथन को निश्चय और पराश्रित कथन को व्यवहार कहते हैं।" भूतार्थ को निश्चय और अभूतार्थ को व्यवहार कहनेवाले कथन भी उपलब्ध होते हैं। अनेक शास्त्रों का आधार लेकर पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने निश्चयव्यवहार का सांगोपांग विवेचन किया है, जिसका सार इसप्रकार है : (१) सच्चे निरूपण को निश्चय और उपचरित निरूपण को व्यवहार कहते हैं । (२) एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्चयनय है और उपचार से उक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावस्वरूप कहना व्यवहारनय है । जैसे-मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना निश्चयनय का कथन है और घी का संयोग देखकर घी का घड़ा कहना व्यवहारनय का कथन है। (३) जिस द्रव्य की जो परिणति हो, उसे उस ही का कहना निश्चयनय है और उसे ही अन्य द्रव्य की कहनेवाला व्यवहारनय है।" ' समयसार गाथा २७२ की प्रात्मख्याति टीका २ (क) समयसार गाथा ११ (ख) पुरुषार्थसिद्ध युपाय, श्लोक ५ ३ मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २४८-२५७ ४ वही, पृष्ठ २४८-४६ ५ वही, पृष्ठ २४६ ' वही, पृष्ठ २५०
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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