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________________ ३० ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् gram निश्चय-व्यवहार : विरोध-परिहार mmme निश्चय और व्यवहारनयों में विषय के भेद से परस्पर ई विरोष है। निश्चयनय का विषय प्रमेव है, व्यवहारनय का विषय भेद है । निश्चयनय पूर्णानन्दस्वरूप, एक, प्रखण्ड, प्रभेद है प्रात्मा को विषय बनाता है और व्यवहारनय वर्तमानपर्याय, राग प्रादि भेद को विषय बनाता है। इसप्रकार दोनों के विषय में अन्तर है। निश्चय का विषय द्रव्य है, व्यवहार का विषय पर्याय है । इसप्रकार दो नयों का परस्पर विरोध है। इन नयों के विरोध को नाश करनेवाले स्यात्पद से चिह्नित जिनवचन हैं । 'स्यात्' अर्थात् कथञ्चित् - किसी एक अपेक्षा से। जिनवचनों में प्रयोजनवश द्रव्याथिकनय को मुख्य करके निश्चय कहा है तथा पर्यायाथिकनय या प्रशुद्धद्रव्याथिकनय है को गौरण करके व्यवहार कहा है। पर्याय में जो प्रशुद्धता है, वह द्रव्य की ही है। इसप्रकार पर्यायाथिकनय को प्रशद्रव्याथिकनय भी कहा है। देखो! त्रिकाल, ध्रव, एक, प्रखण्ड, ज्ञायकमाव को मुख्य करके, निश्चय कहकर सत्यार्थ कहा है और पर्याय को गौण करके, व्यवहार कहकर प्रसत्यार्थ कहा है। इसप्रकार जिनवचन 'स्यात्' पद द्वारा दोनों नयों का विरोष मिटाते हैं। -प्राध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी [प्रवचनरत्नाकर भाग १, पृष्ठ १७०]
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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