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________________ मूलनय : कितने ? ] [ २७ पंचाध्यायीकार ने व्यवहार और पर्यायाथिक नय को कथंचित् एक बताते हुए कहा है : "पर्यायाथिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचार मात्रः स्यात् ॥' पर्यायाथिक कहो या व्यवहारनय - इन दोनों का एक ही अर्थ है, क्योंकि इस नय के विषय में जितना भी व्यवहार होता है, वह उपचारमात्र है।" नयचक्र की गाथा १८२ का दूसरे प्रकार से किया गया उक्त अर्थ भी दोनों में समन्वय का ही प्रयास लगता है। यद्यपि निश्चयनय को द्रव्याश्रित एवं व्यवहारनय को पर्यायाश्रित बताकर दोनों प्रकार के मूलनयों में समन्वय का प्रयास किया गया है, तथापि यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि निश्चय-व्यवहार द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक के पर्यायवाची नहीं हैं। नयचक्र की गाथा १८२ में निश्चय-व्यवहार को सर्वनयों का मल बताने के तत्काल बाद गाथा १८३ में द्रव्याथिक-पर्यायाथिक को मूलनय बताने से ऐसा लगता है कि ग्रंथकार कुछ विशेष बात कहना चाहते हैं। यदि वे निश्चय-व्यवहार और द्रव्याथिक-पर्यायाथिक को पर्यायवाची मानते होते तो फिर उन्हें अगली ही गाथा में मूलनयों के रूप में उनका पृथक् उल्लेख करने की क्या प्रावश्यकता थी? ___ इस संदर्भ में गाथा १८२ की दूसरी पंक्ति महत्त्वपूर्ण है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उसमें वे द्रव्याथिक-पर्यायाथिक को निश्चयव्यवहार का हेतु कहते हैं । यहाँ साधन शब्द का अर्थ व्यवहार किया जा रहा है, जो कि अनुचित नहीं है। गाथा १८२-१८३ पर ध्यान देने पर ऐसा लगता है कि नयचक्रकार निश्चय-व्यवहार को तो मलनय मानते ही हैं। साथ ही उनके हेतू होने से द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों को भी मूलनय स्वीकार करते हैं। यहां पर द्रव्याथिकनय निश्चयनय का और पर्यायाथिकनय व्यवहारनय का हेतु है-ऐसा कहने के स्थान पर यह भी कहा जा सकता है कि पंचाध्यायी, प्र० १, श्लोक ५२१
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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