SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् प्रवचनसार में भी अनन्त नयों की चर्चा है।' नयचक्र भी उतना ही जटिल है जितनी कि उसकी विषयभूत अनन्तधर्मात्मक वस्तु । विस्तार तो बहुत है, किन्तु नयचक्र और पालापपद्धति में मूलनयों की चर्चा इसप्रकार की गई है : "णिच्छयववहारणया मूलिमभेया गयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेउ पज्जयवव्वत्थियं मुणह ॥ सर्वनयों के मूल निश्चय और व्यवहार - ये दो नय हैं। द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक - ये दोनों निश्चय व्यवहार के हेतु हैं।" उक्त छन्द का अर्थ इसप्रकार भी किया गया है : "नयों के मूलभूत निश्चय और व्यवहार दो भेद माने गये हैं, उसमें निश्चयनय तो द्रव्याश्रित है और व्यवहारनय पर्यायाश्रित है, ऐसा समझना चाहिए।" नयचक्र के उक्त कथन में जहां एक ओर निश्चय और व्यवहार को मूलनय कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसी नयचक्र में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों को मूलनय बताया गया है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को मूलनय बताने वाली गाथा इसप्रकार है : "दो चेव य मूलरण्या, मरिगया बव्वत्थ पज्जयत्थगया। अण्णे पसंखसंखा ते तम्मेया मुरण्यया ॥ द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक- ये दो ही मूलनय कहे हैं, अन्य असंख्यात-संख्या को लिए इनके ही भेद जानना चाहिए।" इसप्रकार दो दृष्टियां सामने आती हैं। एक निश्चय-व्यवहार को मूलनय बताने वाली और दूसरी द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक नयों को मूलनय बताने वाली। दोनों दृष्टियों में समन्वय की चर्चा भी हुई है। १ प्रवचनसार, परिशिष्ट २ (क) द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा १८२ (ख) पालापपद्धति, गाथा ३ । 3 प्राचार्य शिवसागर स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ ५६१ ४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा १८३
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy