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________________ 18 ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् "पमारणादो गयारणमुप्पत्ती, प्रणवगय? गुरणप्पहारणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो।' प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वस्तु के अज्ञात होने पर, उसमें गौणता और मुख्यता का अभिप्राय नहीं बनता।" 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' में नय की परिभाषा इसप्रकार दी गई है : "जं गारगीरण वियप्पं सुवासयं वत्थुमंस संगहरणं। तं इह रणयं पउत्तं पाणी पुरण तेण पारणेण // 173 // श्रुतज्ञान का आश्रय लिये हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है, उसे नय कहते हैं। और उस ज्ञान से जो युक्त होता है, वह ज्ञानी है।" अन्य बातें सामान्य होने पर भी इसमें यह विशेषता है कि एक ओर तो ज्ञानी के विकल्प को नय कहा गया है और दूसरी ओर नय-ज्ञान से युक्त आत्मा को ज्ञानी माना गया है। इसका मूलभाव यही प्रतीत होता है कि वे इस बात पर बल देना चाहते हैं कि सम्यक्नय ही नय हैं और वह नय ज्ञानी के ही होते हैं, अज्ञानी के नहीं / अज्ञानी के नय नय नहीं, नयाभास हैं। यद्यपि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, तथापि नय उसके किसी एक धर्म को ही अपना विषय बनाता है। जिस धर्म को वह विषय बनाता है, वह मुख्य और अन्य धर्म गौण रहते हैं / 'कातिकेयानुप्रेक्षा' में स्पष्ट लिखा है :"गाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्म पि वच्चदे प्रत्थं। तस्सेय विवक्खादो गस्थि विवक्खा हु सेसारणं // यद्यपि पदार्थ नाना धर्मों से युक्त होता है तथापि नय उसके एक धर्म को ही कहता है, क्योंकि उस समय उस धर्म की ही विवक्षा रहती है, शेप धर्मों की नहीं।" वस्तू में अनन्त धर्म ही नहीं, अपितु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्त धर्म-युगल भी हैं / परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले दो धर्मों में से 'धवला पु० 6, खण्ड 4, भाग 1, सूत्र 47, पृष्ठ 240 [जैनेन्द्र सिवान्तकोश, भाग 2, पृष्ठ 525] 2 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 264
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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