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________________ १६८ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् तो करना ही होगा। प्राथमिकता के निर्णय में अध्यात्म को ही मुख्यता देनी होगी, अन्यथा यह अमूल्य नरभव यों ही चला जायगा। यदि आप अपनी बुद्धि और समय की कमी के कारण पागम का विस्तृत अभ्यास नहीं कर पाते हैं तो उससे आपको अपना हित करने में विशेष परेशानी तो नहीं होगी, पर इस बहाने आगम के अभ्यास की निरर्थकता सिद्ध करने का व्यर्थ प्रयास न करें। जिनके पास समय है, बद्धि भी तीक्ष्ण है और जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही आत्महित के लिए समर्पित कर दिया है। वे लोग भी यदि अध्यात्म के साथ-साथ आगम का अभ्यास नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा। आचार्यकल्प पंडित श्री टोडरमलजी ने चारों ही अनुयोगों के स्वरूप और प्रतिपादन शैली का विस्तृत विवेचन करते हुए सभी के अध्ययन की उपयोगिता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। विस्तारभय से यहाँ उसे देना संभव नहीं है। जिज्ञासू पाठकों से उसे मूलत: पढने का साग्रह अनुरोध है। आगम का विरोधी अध्यात्मी नहीं हो सकता, अध्यात्म का विरोधी आगमी नहीं हो सकता। जो आगम का मर्म नहीं जानता, वह अध्यात्म का मर्म भी नही जान सकता और जो अध्यात्म का मर्म नहीं जानता, वह आगम का मर्म भी नही जान सकता। सम्यग्ज्ञानी आगमी भी है और अध्यात्मी भी, तथा मिथ्याज्ञानी आगमी भी नहीं और अध्यात्मी भी नहीं होता। पंडित श्री बनारसीदासजी परमार्थवचनिका में लिखते है : "वस्तु का जो स्वभाव उसे आगम कहते हैं, आत्मा का जो अधिकार उसे अध्यात्म कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव न आगमी, न अध्यात्मी। क्यों ? इसलिए कि कथनमात्र तो ग्रंथपाठ के बल से प्रागम-अध्यात्म का स्वरूप उपदेश मात्र कहता है, आगम-अध्यात्म का स्वरूप सम्यक्-प्रकार से नहीं जानता, इसलिए मूढ़ जीव न आगमी, न अध्यात्मी; निर्वेदकत्वात् ।" (७) प्रश्न :- सद्भूतव्यवहारनय, असद्भूतव्यवहारनय और उपचरित-असद्भूतव्यवहारनयों को पागम के नयों में भी गिनाया है और अध्याय के नयों में भी - इसका क्या कारण है। क्या वे दोनों शैलियों के नय हैं ? यदि हाँ तो उनमें परस्पर क्या अन्तर है ? ' मोक्षमार्गप्रकाशक, पाठवा अधिकार
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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