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________________ नश्चय-व्यवहारनय : विविध प्रयोग : प्रश्नोत्तर ] [ १६७ को ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होगा तथा सम्यकचारित्र सम्यग्दृष्टि को ही होता है, अतः चारित्र भी उन्हीं को होगा। इसप्रकार श्रुतकेवली के अतिरिक्त किसी भी क्षमस्थ को मोक्षमार्ग का प्रारंभ भी नहीं होगा। अतः यह निश्चित हुआ कि मुक्तिमार्ग की सम्यक् जानकारी के लिए ही नहीं, अपितु उस पर चलने के लिए भी प्रागम की सम्पूर्ण जानकारी आवश्यक नहीं है; किन्तु अध्यात्म में निरूपित जानकारी अत्यन्त आवश्यक है, उसके बिना मुक्ति मार्ग का प्रारंभ संभव नही है । (६) प्रश्न :- तो क्या फिर आपके अनुसार आगम का अभ्यास करना व्यर्थ है ? उत्तर :- नही, भाई ! व्यर्थ नहीं है। हमने तो यह कहा था कि सम्यग्दर्शनादिरूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण आगम का पढना अनिवार्य नहीं है और आप उसे व्यर्थ बताने लगे, वह भी हमारे नाम पर । अध्यात्म भी तो पागम का ही अंग है । अध्यात्म का मर्म जानना अनिवार्य होने से प्रागम का अध्ययन भी अशत: अनिवार्य तो हो ही गया, किन्तु सम्पूर्ण आगम का पढ़ना अनिवार्य नहीं है, फिर भी उपयोगी अवश्य है; क्योंकि आगम मे सर्वत्र आत्मा को जानने की प्रेरणा दी गई है। प्रात्महित का प्रेरक होने से उसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। दूसरे आगम और अध्यात्म के शास्त्रो मे ऐसा कोई विशेष विभाजन भी तो नहीं है कि आगम शास्त्रो मे अध्यात्म-चर्चा ही न हो या अध्यात्म शास्त्रों में आगम की बात आती ही न हो। भेद तो मात्र मुख्यता का है। समयसारादि शास्त्रों में अध्यात्म की मख्यता है और गोम्मटसारादि शास्त्रो मे आगम भी मुख्यता है। आगम और अध्यात्म एक दूसरे के विरोधी नही, अपितु पूरक है। आगम के अध्ययन से अध्यात्म की पुष्टि ही होती है। अतः जितना बन सके आगम का अभ्याम भी अवश्य करना चाहिए। आगम, अध्यात्म के लिए और पागमाभ्यास, अध्यात्मियो के लिए आधार प्रदान करता है, उदाहरण प्रस्तुत करता है । प्रागम और अध्यात्म शैली का भेद आगमाभ्यास के निषेध के लिए नही समझाया जा रहा है, अपितु यह भेद इसलिए स्पष्ट किया जा रहा है कि जिससे आप दोनों शैलियों में निरूपित वस्तुस्वरूप का सम्यक-परिज्ञान कर सके। हाँ, यह बात अवश्य है कि यदि आपके पास समय कम है और बुद्धि का विकास भी कम है तो आपको अध्ययन में प्राथमिकता का निर्णय
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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