SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९ ईश्वर क्या है? पदार्थ-समूहमें एक क्रम दिखलाई देता है। व्यक्तिसे जाति और जातियोंमें भी उच्च, उच्चतर, उच्चतम इस प्रकार तारतम्य देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि कोई एक परिपूर्णतम सत्त्व है, जो सभी जातियों पर अधिकार रखता है।" इस युक्तिके आधार पर यह दर्शनकार 'जातिशिरोमणि, परिपूर्णतम सत्त्व'को ईश्वर बतलाता है। यह असत् हो तो फिर पूर्णतम सत्त्व' कुछ हो ही नहीं सकता। कारण कि 'सत्' न हो तो फिर 'पूर्णता 'का होना ही कव सम्भव हो सकता है। वर्तमान युगके आरम्भमें दार्शनिक डेकाटने भी न्यूनाधिक अंगमें 'पूर्णसत्त्ववाद'का ही प्रचार किया है। वह कहता है कि, मनुष्यकी विचारधारामें पूर्ण सत्त्व सम्बन्धी धारणाको स्थान है। यह धारणा कहांसे आई । मनुष्य स्वयं- तो अपूर्ण है अत एव वह स्वयं पूर्ण सत्त्वकी धारणाका उत्पादक नहीं हो सकता। अत एव एक परिपूर्ण सत्त्व है, इसी लिये मनुप्यके मनमे सदैव ऐसी धारणा वर्तमान रहती है। यह परिपूर्ण सत्व ही ईश्वर है। ___अन्य कुछ दार्शनिकोंने भी किसी न किसी रूपमें इसी विचारको पुष्ट किया है। सब यही कहते है कि मनुष्य अपूर्ण है, पामर है, सीमाबद्ध है, अज्ञानान्धकारमे भटकता है। इन सबसे पर एक महान् महिमामय ईश्वर है, जो हर प्रकारसे पूर्ण, महान् , असीम और ज्ञानरूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि अत्यन्त प्राचीन कालमें भारतमें " पूर्णसत्त्ववाद"का प्रचार था। पुण्यभूमि भारतवर्ष अनेक स्वतन्त्र विचारकों की जन्मभूमि है। यह सर्वथा सम्भव है कि अति प्राचीन कालमें यहाँ " पूर्णसत्त्ववाद" जैसे मतमतान्तरोंका जन्म और उनका पालन
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy