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________________ जिनवाणी परस्पर भिन्न है। वे अनादि कालसे बंधनग्रस्त है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रके बिना जीवकी मुक्ति नहीं हो सकती। एक प्रकारसे जीव की विविधता, अनादिवद्धता और मुक्ति सम्बन्धी शक्यता इन अद्वैत वादियोको भी स्वीकार करनी पड़ती है। परन्तु वे यह कहकर अलग हो जाते है कि यह सब व्यवहारदृष्टिसे ही होता है। जैन पग्डित कहते है - " जीव बहुत है, अनादिवद्ध है और मुक्ति प्राप्त करनेकी उनमें योग्यता है। यह स्वीकार करनेके पश्चात् तो कुछ विशेष कहनेकी बात ही नहीं रहती । ब्रह्म एक है, अद्वितीय है, यह सब तो वागाडम्बर है, क्योंकि इसके समर्थन में आप कोई अच्छी युक्ति नहीं दे सकते।" सारांशतः जैन दृष्टिमें एक अद्वितीय सत्य स्वरूप कोई ब्रह्म नहीं है और न ही ईश्वर ब्रह्म है। तव ईश्वर क्या है? मध्य युगमें, युरोपमें ईसाई लोग ईश्वरको अधिकांशमें 'पूर्ण सत्व' (Perfect Being) अथवा जगत्पिता स्वरूप बतलाते थे। इन 'पूर्णसत्व' वादियोंका युक्तिवाद ontological Argument नामसे प्रसिद्ध है। सेट ओगस्टिन कहता है " मनुष्य -- बन्धनदशायुक्त मनुष्य, अल्पज्ञ तथा मोहके वशीभूत मनुष्य- पूर्ण सत्यको धारणा कर सके यह किस प्रकार संभवित है ? जगतके पीछे सत्यके पूर्ण आदर्शरूप, आधाररूप ' पूर्ण सत्व' है, इसी लिये पामर मनुष्य सत्यका साक्षात्कार कर सकता है । यह 'पूर्ण सत्त्व' ही परमेश्वर है।" एक अन्य दर्शनकार आन्सेल्म भी इसी प्रकार कहता है- "सत्
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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