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________________ २६ जिनवाणी यत्न करना है, इतना ही नहीं, बल्कि वह अनन्त क्रियाशक्तिका आधार भी हैं। संक्षेपमें कहे तो भर्हत दर्शन सुयुक्तिमूलक दर्शन है: युक्ति और न्याय पर ही वह प्रतिष्टित है । वैदिक कर्मकाण्डके विरोधने इसे प्रबल शक्तिशाली बनाया । नास्तिक चार्वाक इसके सामने उह नहीं सकता । भारतवर्षके अन्य दर्शनकि समान जैन दर्शनके भी अपने मूल सूत्र, तत्त्वविचार और मतामत आदि है । जैन और वैशेषिक दर्शनमें भी इतना साम्य है कि, साधारण रीतिसे देखनेवालोंको इनमें विशेष भेद्र मालूम नहीं हो सकता । परमाणु, दिशा, काल, गति और आत्मा आदि तत्ववि चाग्मं ये दोनों दर्शन लगभग समान है, परन्तु पार्थक्य देखे तो भी बहुत अधिक पाया जायगा । वैशेषिक दर्शन विविधतावादी होनेका दावा करता हैं, परन्तु ईश्वरकी सत्ता मानकर वह एकचवाढकी ओर जाता है. किन्तु जैन दर्शन अपने विविध तत्त्वों पर अचल खडा है । उपसंहारमें मे यह कह देना चाहता हूं कि, जैन दर्शन विशेष विशेप बातोमें बौद्ध, चार्वाक, वेदान्त, सांख्य, पातंजल, न्याय और वैाषिक दर्शनके समान प्रतीत होता है, तथापि वह एक स्वतन्त्र दर्शन है। वह अपनी उन्नति या उत्कर्षके लिये किमीका ऋणी नहीं है । अपने बहुविध तत्त्वोंके विषयमें वह पूर्णत स्वतन्त्र है और उसका भी अपना व्यक्तित्व है ।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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