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________________ जैन दर्शनका स्थान तत्त्व मानता है । वह एकसे अधिक तो है ही, इसके साथ ही, उसे (अजीवको ) अनात्मस्वभाव भी माना है। ।। उपर्युक्त कथनानुसार सांख्यकथित अजीवतत्त्व याने प्रकृतिका अध्यात्मपदार्थके रूपमें परिणमन किया जा सकता है, परन्तु जैन दर्शनके अजीवतत्त्वोंको किसी प्रकार भी जीवस्वभावकी कोटिमें नहीं रक्खा जा सकता। अजीव पांच है - पुद्गल नामक जड़ परमाणु, धर्म नामक गतितत्व (धर्मास्तिकाय ), अधर्म नामक स्थितितत्त्व (अधर्मास्तिकाय), काल और आकाग । ये सब या तो जड़ पदार्थ है या उनके सहकारी। इसके अतिरिक्त जैन मतमें आत्माको अस्तिकाय अर्थात् परिमाणविशिष्ट रूपमें दिखलाया है। आत्मामें कर्मजनित लेश्या अथवा वर्णभेद भी माना है। जैन दर्शनमें आत्माको अतिशय लघु पदार्थ और ऊर्ध्वगतिशील माना है। यह सव बाते सांख्यसे असमान-भिन्न है । ___मैंने जो ऊपर कहा है कि सांख्य दर्शन अधिकांशमें चैतन्यवादके निकट पहुंचता है और जैन दर्शन कितने ही स्थानोंमें जड़चादके पास पहुंचता हुवा दिखलाई देता है, इसका भावार्थ उपर्युक्त विवेचनसे कुछ समझमें आ सकता है। , . सांख्य दर्शनसे जैन दर्शन स्वतन्त्र है। सांख्यसे जैन दर्शनकी उत्पत्ति बतलाना मिथ्या है । जिस प्रकार इन दोनोमे अनेक विषयोमें साम्य है उसी प्रकार पार्थक्य मी है। एक ही बात लीजिये -सांख्य दर्शनमें आत्माको निर्विकार और निष्क्रिय माना है, परन्तु जैन दर्शन कहता है कि उसका तो स्वभाव ही परिपूर्णता प्राप्त करनेके लिये
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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