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________________ इन चारों लेखोंको पढ़ते हुवे मुझे, कितनेक मुद्दों, कितनीक व्याख्याओं और कई तुलनाओंके सम्बन्धमें अपने पुराने हिन्दी और गुजराती लेखोंका स्मरण हो आया। कर्मग्रन्थोकी वे प्रस्तावनाएं, 'पुरातत्त्व' और 'जैन साहित्य संगोधक के वे लेख, और 'तत्त्वार्थका वह विवेचन आदि सबकी स्मृति मेरे चित्तमें ताजी हो गई। और ऐसा प्रतीत होने लगा कि, प्रस्तुत लेखोंके पाठक यदि वे लेख ध्यानपूर्वक समझकर पढ़े तो उनकी समझशक्ति और उनके ज्ञानमें वृद्धि होनेके अतिरिक्त निश्चित प्रकारको दृढता भी उत्पन्न होगी। इसी तरह मुझे यह भी प्रतीत हुवा कि, जिन्होंने उन लेखोंको पढ़ा है, वे यदि इन्हे पढ़ेंगे तो उनकी उन लेखोंके सम्बन्धकी प्रतीति अधिक दृढ़ और स्पष्ट होगी। प्रथम अलग अलग प्रकाशित तथा अप्रकाशित इन अनुवादित लेखोका संग्रह एक पुस्तकमें हुआ है वह अनेक दृष्टियोंसे विशेष उपयोगी सिद्ध होगा। कॉलेजोमें शिक्षा पानेवाले विद्यार्थियों तथा उन्हींके समान योग्यता और जिज्ञासा रखनेवाले अन्य पाठकोंके लिए - चाहे वे जैन हों या जनेतर- यह संग्रह बहुत उपयोगी है। इसी प्रकार स्कूलके वड़ी अवस्थाके एवं थोड़ी पक्व बुद्धिके विद्यार्थियोंके लिए एवं विशेषतः स्कूलोंमें धार्मिक और दार्शनिक शिक्षा देनवाले शिक्षकोंके लिए भी यह संग्रह बहुत मूल्यवान है । इसके अतिरिक्त मात्र प्राचीन और एकदेशीय पद्धतिसे शिक्षा देनेवाली जैन पाठशालाओंमें पढ़नेवाले अधिकारी स्त्रीपुरुषोंके लिए, और विशेषत. जो ऐसी पाठशाला ओंमें शिक्षकका कार्य करते है परन्तु जिन्हे जैन शास्त्रका विशाल परिचय नहीं है और जो जैन दृष्टिकी व्यापकतासे अनभिज्ञ है उनके लिए
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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