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________________ इन लेखोंमें, प्राचीन ग्रीक तत्त्वचिंतकोंसे लेकर मध्य कालीन एवं अर्वाचीन युरोपीय तत्त्वचिंतकों तकके, जैन दर्शनके मुद्दोंसे प्रतिकूल तथा अनुकूल विचार आ जाते है । अत एव पश्चिमी तत्त्वज्ञानसे परिचित जिज्ञासु पाठकोंको जैन दर्शन पढनेकी विशेष रुचि उत्पन्न हो तथा वह भली भांति समझमें आजाय ऐसी इन लेखोंकी योजना है। इसके अतिरिक्त जो केवल जैन दर्शनके तत्वसे परिचित है और इस विषयमें पश्चिमी विचारको मतसे अनभिज्ञ है उनको भी जैन तत्त्वका व्यापक मर्म समझानेकी व्यवस्था इन लेखोंमें मौजूद है। इन लेखोंमें जैन साहित्यके आगमिक और तार्किक दोनों प्रकारके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका तात्त्विक निरूपण आ जाता है। फिर चाहे वह निरूपण दिगंवरीय ग्रन्थोके आधार पर हो या श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंके आधार पर, अथवा उभय पक्षके ग्रन्थोंके आधार पर । ऐसा होने पर भी इन लेखोंसे यह प्रतीत होता है कि लेखकने प्रधानतः जैन तार्किक ग्रन्थों (यथा, 'रत्नाकरावतारिका,' प्रमेयकमलमार्तंड', 'स्याद्वादमंजरी' आदि)का अध्ययन किया है । अत एव आजकल जो जैन, जैनेतर विद्यार्थी जैन तर्कशास्त्रका अध्ययन कर रहे है अथवा जिन्होंने जैन तर्कशास्त्रकी परीक्षा दी है, उन सबके लिये इन लेखोंका पठन अनेक दृष्टिओसे उपयोगी सिद्ध होगा। ये लेख शुष्क पण्डितोंको यह सिखलाएंगे कि, संस्कृत भाषामें तर्कशैलीसे विवेचित मुद्दे यौर तत्सम्बन्धी विवरण सरलतापूर्वक लोकभाषामें किस प्रकार उतारे जा सकते हैं, एवं जटिल कहलानेवाले शास्त्रीय ज्ञानको कुछ सरल किस प्रकार किया जा सकता है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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