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________________ १७८ जिनवाणी लाख चोसठ हजार श्रावक एवं तीन लाख सत्ताईस हजार श्राविकाएं हुई। ३५७ चौदपूर्वी, १४०० अवधिज्ञानी, ७५० केवली और एक हजार वैक्रिय लब्धिधारी हुवे । । कमठ जैसा भगवानका वैरी भी पार्श्वनाथ प्रभुकी शांति और उनका धैर्य देखकर उनके चरणोंमें गिरा । भगवानका उपदेश सुनकर उसने भी अपने हृदयमें रहे हुए जहरको निकाल फैका। आखिरको उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त हुई और वह मोक्ष-मार्गका अधिकारी हुवा। पार्श्व प्रभुकी करुणाकी वर्षा, मित्र और वैरीके मेद विना, सर्व जीवों पर समान रूपसे होती थी। । कितनेक तापस अज्ञानमय तप कर रहे थे; केवल कायाक्लेश सह रहे थे। उन्होंने पार्व प्रभुके सत्यमार्गका स्वीकार किया। " । निर्वाणके एकाध महिना पूर्व भगवान् संमेतशिखर पर पधारे। जैिन समाजमें यह तीर्थ बहुत प्रसिद्ध है। यहां बहुतसे साधकों, मुनिवरोंका पवित्र आगमन हुवा है । जिस कालके विषयमें इतिहास भी मौन है, उस अति प्राचीन समयमें इस स्थान पर बहुसंख्यक वैराग्यवान पुरुषोंने आत्मकल्याणकी साधना की है। - इसी स्थान पर पार्श्वनाथ प्रभुने श्रावणशुक्ला अष्टमीको ३३ मुनिबरोंके साथ मुक्ति प्राप्त की। इनके देहका अन्तिम अग्निसंस्कार. देवबृन्दने अत्यन्त भक्तिपूर्वक किया ।। . . . . . , , आज, तो पार्श्वनाथ भगवान शान्तिमय सिद्धशिला पर विराजमान हैं एवं वे अब कभी मर्त्यलोकमें वापस नहीं आएंगे। फिर भी उनका सत्यमार्ग आज सबके लिये खुला है। उनके नामसे स्मरणीय बना
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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