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________________ जिनवाणी १६० जीवन बिता रहा हूं ? ” महाराजा अरविंदने अपने पुत्रको सिंहासनारूढ करके त्यागपथ का रास्ता लिया । कई वर्ष इसी प्रकार बीत गये । सम्राट् अरविंद आज अरण्यवासी है, निःस्पृह मुनिके समस्त आचार पालते हैं । एक बार सम्मेतशिखरकी और विहार करते हुवे मार्गमें सलकी नामक एक बड़ा बन पड़ा। अरविन्द मुनिके साथ और भी बहुतसे मुनि थे। सबने सलकी अरण्यमें डेरा डाल दिया । मुनिसंघ बैठा हुआ था, इतने ही में एक पागल हाथी मदोन्मत्त होकर वृक्षोंको समूल उखाड कर फेंकता हुवा, अपनी ओर आता उन्होंने देखा । महात्मा अरविन्द ध्यानस्थ थे । वे आंख खोलें, इसके पूर्व ही हाथीने उन्हें सूंढसे पकड लिया | महात्मा तनिक भी व्याकुल न हुवे । वे तो पर्वतके अपने समान आसन पर बैठे रहे । हाथीका जाता रहा । उसने मुनि अरविंदको छाती पर श्रीवत्सका चिह्न देखा । उसे देखते ही हाथीको अपने पूर्व भवकी स्मृति जागृत हो गई। एक छोटेसे चिह्नमें उसने समस्त भवकी लम्बी अविच्छिन्न कथा लिखी देखी। सूंढ झुकाकर उसने महाराजाको प्रणाम किया। 1 “ क्यों इस प्रकारकी व्यर्थ हिसा करता है ?" मुनि अरविन्दने कोमल वाणीसे, हाथीको सम्बोधित करके कहा, “ हिंसाके समान अन्य कोई भी पाप नहीं है। अकाल मृत्युके परिणाम स्वरूप तो तुझे हाथीका - जानवरका भव प्राप्त हुवा है । अब भी क्या पापसे नहीं डरता ? धर्मपंथमें विचर !व्रतादिका पालन कर ! किसी दिन सद्गति मिल ही जायगी। "
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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