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________________ १३४ जिनवाणी श्राविका इन चारों संघ-विभागोंको उपदेश देते है । तीर्थकर जव माताके गर्नमें आते है, जन्म लेते है, दीक्षा लेते हैं, सर्वज्ञता प्राप्त करते हैं और निर्वाणको प्राप्त होते है तव इन्द्रादि देव महोत्सव पूर्वक उनकी पूजा (अही) करते है इसी लिये उन्हें " अर्हत् " भी कहते है। इन महापुरुपोको देहका रत्तिभर भी ममत्व नहीं होता। तथापि उनका शरीर अति शुभ्र, सहस्र सूर्योके समान समुज्ज्वल होता है। वह पूर्णतः निदोंप होता है। भगवान तीर्थंकरोंको चार प्रकारके अतिशय भी होते है। अर्हत् अथवा तीर्थकर प्रत्यक्ष ईश्वर स्वरूप होते है। तदनन्तर जव सर्वज्ञ पुरुषके अघाती कर्म नष्ट हो जाते है तब वह कर्मवन्धनसे मुक्त होकर, संसाररूपी कारावाससे निकलकर, लोकशिखर पर स्थित, चिरशांतिमय सिद्धशिला पर विराजमान होते है। यही जीवक्री अन्तिम अवस्था है-परामुक्ति है। सिद्धके जीवोंको किसी प्रकारका कर्ममल नहीं होता। वे आत्माके विशुद्ध स्वभावमें ही रहते हैं। वे प्रथमकथित अव्यावाघ आदि आठ प्रकारके गुणोंके अधिकारी हो जाते है। चार प्रकारके जीव गतिमेदसे जीव चार भेदोमें विभक्त है-देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच। देवके चार भेद हैं-(१) भवनवासी, (२) व्यंतर, (३) ज्योतिष्क और (8) वैमानिक। भवनवासीके दस भेद है--(१) असुरकुमार, १२) नागकुमार,
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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