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________________ जीव . १३७ सिद्ध, लोकाकाशके शिखर पर, सिद्धशिला पर, विराजमान होते हैं। सिद्ध संसार-सागरको पार पाये होते है । वे मुक्त कहलाते है। तीन प्रकारके जीव संसारी, सिद्ध और नोसिद्ध जीवन्मुक्त इन तीन प्रकारसे जीवके तीन भेद किये जा सकते है । कर्मसंयुक्त जीव संसारी जीव है। कर्म दो प्रकारके हैं: घाती और अघाती। मुक्तिमार्गका यात्री क्रमशः अपने कर्म-वन्धनोको शिथिल करता हुवा जिस पवित्र क्षणमें तेरहवें गुणस्थानमें पहुंच जाता है तव वह संसारख्यागी साधक चार प्रकारके घाती कर्मको तोड़ देता है। एक प्रकारसे वह जीवन्मुक्त हो जाता है। परन्तु अघाती कर्मका संयोग उस समय भी रहता है अत एव उस वक्त वह सयोगकेवली अथवा पूर्णतः मुक्त न होनेके कारण नोसिद्ध भी कहलाता है। जीवन्मुक्त एक दृष्टिसे मुक्त ही है, परन्तु पार्थिव शरीर अवशिष्ट रहनेके कारण यह तीसरा भेद किया गया है। घाति कर्मके विनाशसे जीवन्मुक्तको केवल ज्ञान प्राप्त होता है, वह सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है; अथवा वह अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत ज्ञान और अनंत वीर्यका अधिकारी हो जाता है। ___जीवन्मुक्त सर्वज्ञके दो भेद हैं: सामान्य केवली और अर्हत् । सामान्य केवली केवल अपनी मुक्तिकी ही साधना करता है। अर्हत् संसारके समस्त जीवोंकी मुक्तिके लिये उपदेश देता है। अर्हतको ही तीर्थकर कहते है। संसार-सागरमें गोते खातेहुवे जीवोंके लिये उपदेशमय तीर्थका निर्माण तीर्थकर ही करते हैं। वे साधु, साध्वी, श्रावक और
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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