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________________ १३४ जिनवाणी कहलाता है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेदसे नय भी दो प्रकारका होता है । द्रव्यार्थिक नयका विषय ' द्रव्य, ' और पर्यायार्थिक नयका विषय ' पर्याय ' है । नैगम नय, संग्रहनय, और व्यवहारनय - ये द्रव्यार्थिक नयके अन्तर्गत हैं । नैगम नय उद्देश्यको बतलाता है। संग्रह नय वस्तुओके सामान्य अंशका और व्यवहार नय विशेष अंशका ग्रहण करता है । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये पर्यायार्थिक नयके चार भेद है। वस्तुके वर्तमानकालवर्ती पर्यायके साथ ऋजुसूत्रका सम्वन्ध है । शब्दनयके अनुसार एकार्थवाचक शब्दोंसे एक ही अर्थका बोध होता है । समभिरूढ नयके अनुसार एकार्थवाचक शब्दोसे लिंग, धातु-प्रत्ययादि भेदसे पृथक् पृथक् अर्थ योतित होते है । एवंभूत नय प्रत्येक शव्दकी क्रिया चतलाता है; वस्तुके क्रियाहीन होने पर उस शब्द द्वारा उसकी पहिचान करनेका अधिकार नहीं रहता । 1 प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष, ये दो भेद है । प्रमाण और नय ज्ञानके भीतर समा जाते है। ज्ञान और दर्शन उपयोगके प्रकार-भेद है । इस उपयोगकी दृष्टिसे जीव एक प्रकारके है, ऐसा कहा जा सकता है। दो प्रकारके जीव संसारी और मुक्तके मेदसे जीवके दो प्रकार है। कर्मफंदमें फंसा हुवा जीव संसारी, और कर्मशून्य जीव मुक्त कहलाता है । संसारी जीव कर्मयुक्त है, तथापि सभी संसारी जीव एक ही श्रेणीके हैं, ऐसा नहीं कह सकते । संसारी जीवोंमें भी कर्मभेद, पर्यायभेद है । इस कर्मभेदको समझानेके लिये जैनाचार्यांने चौदह गुणस्थानोंकी योजना
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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