SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३३ जीव । दूसरोंके चित्तके सम्बन्धमें जो ज्ञान होता है वह मनःपर्याय ज्ञान कहलाता है। विश्वकी समस्त वस्तुओं और पर्यायोंके प्रत्यक्ष ज्ञानका नाम केवलज्ञान है। मति और श्रुतके भेदसे परोक्ष प्रमाणके दो भेद है । जिस ज्ञानमें इन्द्रिय अथवा अनिन्द्रिय (मन) सहायक हो उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञानमें इन्द्रिय ज्ञान, स्वसंवेदन, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, ऊह और अनुमानका समावेश होता है । दर्शन निराकार ज्ञान है। मतिज्ञान साकार ज्ञान है । मतिज्ञानके चार प्रकार - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा- इन्हें मतिज्ञानके चार दर्जे कह सकते है। अवग्रह मतिज्ञानका नीचेसे नीचा दर्जा है। इसके द्वारा विषयके अवान्तर सामान्य (जाति) मात्रका बोध होता है । अवग्रहीत विषयके विशेष समूह संबंधी जानकारीकी स्पृहाका नाम ईहा है। विषयके विशेष ज्ञानको अवाय कहते हैं । विषयज्ञानको धारण किये रहनेको धारणा कहते हैं । इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होनेवाला ज्ञान इन्द्रियज्ञान है । इन्द्रिय-निरपेक्ष, सुखदुःखादिकी अन्तर-अनुभूनिको अनिन्द्रिय ज्ञान अथवा स्वसंवेदन कहते हैं । अनुभूत विषयका पुनः बोध होना स्मरण कहलाता है। सदृश अथवा विसदृश विषयोसे संबन्ध रखनेवाला संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है । विशेषाकार विज्ञानमें से जो त्रिकाल विषयक ज्ञान होता है उसका नाम ऊह अथवा तर्क है । तर्कलब्ध विज्ञानसे 'यह पर्वत अग्निवाला है। इस प्रकारका जो ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं। श्रुतज्ञानका समावेश परोक्ष प्रमाणमें होता है। आत पुरुषकी वचनावलीको श्रुतज्ञान कहते है । विषय सम्बन्धी एकदेशीय ज्ञान नय,
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy