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________________ नीव । ११७ यह तर्क सभी दर्शन नहीं मान सकते । सांख्य और वेदान्त आत्माको चैतन्यस्वरूप मानते हैं। आत्मा जड़ पदार्थ हो तो उससे पदार्थ-परिच्छेद असंभव हो जाय। वह अपरिणामी और कूटस्थ हो तो भी पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकता। और यदि आत्मा सर्वव्यापक हो तो फिर विविध प्रकारका आत्मा माननेके बजाय वेदांतकथित 'एकमेवाद्वितीयम् का सिद्धान्त मान लेनेसे ही काम चल सकता है। इन विरोधों के कारण जैन मतने न्यायमतका परिहार किया है। वह बतलाता है कि जीव (१) चैतन्य स्वरूप है, (२) परिणामी है और (३) स्वदेहपरिमाण है। जैन दर्शनका युक्तिवाद कितना सुन्दर है ! वह कहता है कि, यदि आत्मा जडस्वरूप हो तो उसे पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ आकाश लीजिए, वह जड़स्वरूप है, उसे पदार्थज्ञान नहीं हो सकता, तो फिर आत्माको कैसे हो सकता हैनैयायिक इसके उत्तरमें कहेंगे कि आत्मा जड़स्वरूप है सही, परन्तु वह समवाय सम्बन्धसे चैतन्य-समवेत है। आकाश तो सर्वथा जड़स्वरूप है इस लिए आकागको पदार्थज्ञान नहीं होता, परन्तु आत्माको तो हो ही सकता है। यहां दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि, आकाश और आत्मा दोनों जड़स्वरूप हैं और आप कहते है कि एकको ज्ञान होता है और दूसरेको नहीं; लेकिन इस वातका प्रबल कारण आप नहीं जान सकते। वास्तवमें इसका यही अर्थ है कि आत्मामें स्वभावतः चैतन्य है। . नैयायिक कहते हैं - " परन्तु आत्माका आत्मत्व कहां जायगा ? हमें जो यह निश्चय होता है कि मै हूँ,' इसका कारण आत्मत्वअहंत्व ही है। आन्मामें आत्मत्व-जाति होनेके कारण उसमें चैतन्य
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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