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________________ ११६ जिनवाणी नैयायिकोंके मतानुसार इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, सुख आदि आत्माके गुण हैं। गुण गुणीके साथ समवाय संबन्धसे संबन्धित रहता है। अर्थात् ज्ञानादि गुण आत्माके साथ संलग्न तो अवश्य हैं, परन्तु स्वरूप और स्वभावसे आत्मा निर्गुण है । ज्ञान या चैतन्य आत्माका स्वभाव नहीं है । कैवल्यावस्थामें आत्मा स्वभावमें अर्थात् निर्गुणभावमें रहता हैं। ज्ञान यह कोई आत्माका स्वभाव नहीं है, इस लिये न्यायमतानुसार आत्मा स्वरूपसे अज्ञान, अचेतन अथवा जड़ स्वरूप है। जिस प्रकार मोक दार्शनिक प्लेटोने Idea को Phenomenon के साथ एकान्त संयुक्त रूपसे मानते हुवे भी स्थान स्थान पर उसकी ( Idea की) पूर्ण स्वतन्त्रताकी कल्पना की है उसी प्रकार नैयायिकोंने आत्माका ज्ञानादि गुणके साथ समवाय संबन्ध मानने पर भी उसके जडत्वरूप स्वातन्त्र्यको स्वीकार किया है। नैयायिक एक और बात भी कहते हैं, और वह यह कि, जिस प्रकार आत्मा ज्ञानादि गुणोंसे स्वतन्त्र है उसी प्रकार वह पर्यायादि. द्वारा भी अपरिवर्तित है । ज्ञानके साथ सम्बन्ध रहे या न रहे पर आत्मा सदैव कूटस्थ है, अपरिणामी है । तीसरी वात वे यह कहते हैं कि, आत्मा सर्वव्यापक और सर्वगत है । मूलतः वह जड़स्वरूप होनेके कारण यदि वह सर्वव्यापक न हो तो फिर आत्माका जगतके पदार्थोके साथ संयोग या संबन्ध असम्भव हो जाय । और यदि आत्मा सर्वगत न हो तो विविध दिशा और देशोमें स्थित परमाणुसमूहसे उसका युगपत् संयोग असम्भव हो जाय । और इस प्रकारका संयोग असंभव हो तो शरीरादिकी उत्पत्ति भी असंभव हो जाय । अत एव आत्मा सर्वव्यापक है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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