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________________ ४६२ - जिनहर्ष ग्रंथावली . . हिवइ काया ना बारह कहे, पोलगठी अथिरासण रहइ। ., उरहउ परहउ जोवइ सही, ओठीगण बइसइ ऊमही ॥६॥ । अंगोपांग गुपति नवि धरइ, आलस मोड़ कड़का करइ । खाजि खणइ ऊतारइ मइल, वीसामणा करावे सइल ॥७॥ ऊघड् उरहउ परहउ फिरइ, वार दोप जाणी परिहरे । ए दूषण टालउ वत्रीस, सामायक पालउ निसिदीस ||८|| सामायक जे सूधउ धरे, ते भवसायर हेलई तिरइं । इस जाणी सामोयक करउ, कहे जिनहरख दोप परिहरउ ॥६॥ तेत्रीस गुरु आशातना स्वाध्याय ___ढाल-हिव रांणी पदमावती ॥एहनी॥ गुरू आसातन जाणिवी, सूत्रे कहीय तेत्रीस । दुरगति अति दुखदाइनी, भाखी श्री जगदीस ॥१॥ गुरु आगलि बिहुं पाखती, नइडउ थइ चालइ । पूठइ पिण अति ठुकडउ, बिहुबाजू हालइ ॥रगु॥ गुरु नइ आगलि पाछलइ, अति नइड़उ बइसइ। । नव आसातन इणि परई, जिणवर उवएसइ ॥३गु॥ एक न भाजन थंडिलइ, जल ल्यइ गुरु पहिली । गमणागमण सगुरू थकी, आलोवइ वहिली ॥४॥ साद न आपइ जागतो, जउ गुरु बोलावइ । - साधु श्रावक नइ आवतां, पहिली बतलावइ ॥५गु॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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