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________________ जिनहर्ष प्रथावली जीती कुण जाई सके जी, जगमें इम कहवाय ! भावीने कोई मेटिवाजी, नहीं जिनहरख उपोय ॥१४मो।। पंच इन्द्रियां री सज्काय ___ढाल-नदी जमुना के तीर, उई दोय पसीना काम अंध गजराज, अगाज महावली । कोगल हथनी देखि, मदोमत उछली । आवै पावै दुख्य अजाडी में पडे । ___ आंकुस सीस सहंत, फरस इन्द्री नडे ॥१॥ स्वेच्छाचारी मच्छ, द्रहां माहे रहै । __ आंकोड़े पल वीधि, नीर मैं नांखि है । गिलै जाणि भख मूढ, जाइ कंठे फहै। रसण तणे वसि मरण, लहै जिणवर कहै ॥२॥ कमल सहसदल विमल, बहुल वासाउली। चंचल लोलप गध, लैण आवे अली । अस्तंगत रवि होइ, फल जायै मिली। घ्राणेन्द्री वसि प्राण, तज, न तजै कली ॥३॥ दीपक जोति उद्योत, निहारि पतंगियौ । सोवन भ्रांति एकांति, ग्रहेवा लोभीयौ । अगन्यांनी सुख जाणि, दीप माहे धसै। .. .. भसम हुवै तिण ठाम, चख्य इन्द्री वसै ॥४॥ . N
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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