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________________ गज सुकमाल स्वाध्याय हवा मुनि पाय वंदीये. परम दयाल कृपालो रे । कहा जिनहरख सदा नसुं, प्रहउठी नइ त्रिण कालो रे ॥ ६ ॥ ४५७ गजसुकमाल स्वाध्याय ढाल || घरि आवउ हो मन मोहन घोटा | एहनी गजसुकमाल वहरागीयउ, सुणि नेमीसर उपदेस । वारी । मन मानी तुझ देखणा, हुं तउ लेइसि संजम वेस ॥ वारी१ ॥ मुझ तारउ हो नेमीसर वारी, तुं तउ ज्यादव कुल सिणगार | वारी । चाल्हा तुझ ऊपरि सउवार | वारी । मु । आं । जिम सुख धाये तिमरु, अनुमति लेई दीधी दीख | वारी । | । चालपणे व्रत आदर्य, जगगुरु आपे धर्म सीख वारी ||२|| कर्म खपे किम माहरां, बड़गा कहउ नड् जग भांण । वारी । समता रस मन मां धरी, काउसग जई करि समसाण || वारी ३५|| प्रभु आदेस लेई करी, आव्यउ तिहां गजसुकमाल | वारी । थिर काउसग ऊभु रह्यो, सोमिल दीठउ ततकाल || वारी४ || कोध प्रबल ही वाध्यउ, फिट फिट रे पापी मुंड । वारी । नीच करम ए आचर्य, मुझ बालक कन्या छडि || वारीश्मु || सीखामण घुं एहनइ, वलतुं न करे कोई आम | वारी । रिपि हत्या मन चींतवी, चंडाल तणउ कीयउ काम ||वारी५ || पाल करी माटी तणी, बलता सिरि धर्या अंगार | वारी । सोमल सीस प्रजालीयुं, पिणि नाण्यु क्रोध लिगार || वारी७ ॥ +
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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