SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२२ जिनहर्ष ग्रन्थावली छाँने सं छतरै टले नहीं आये टाणै ॥ रसलुध फिर वल रातिरै धर धापट झाौ धडै । जिनहरष सार लहिमी तिके पांनौ जिहां सेती पडै ॥८॥ नाम जासु नवखंड नगर इक दिट्ठो नयणे। अडालीड असमान बड़ा कहि सके न वयणे । । पुरवासी पायक वहसि मुहि कदे न वोले । हाथ नही हथियार सुर सच्चा सम तोले ।। नर अछै तोइ को न लखै नारि नारि सहुको कहै । जिनहरष कहै साबास सो जिको अरथ साचौ लहै ॥६॥ वरसात रा दूहा मनडौ आज उमाहियौ, देखि घटा धन घोर । सयणा साइ दे मिलू, अलजो जसा सजोर ॥१॥ मनड़ौ न रहै मांहरो, उमटि आयौ मेह । सांई साजन मेलिहौ, जसा वधंते नेह ॥२॥ आयौ पावस आजरौ, नयण झबक बीज । विरही मन माह जसा, खिण खिण आवै खीज ॥३॥ पावस रितु पापी पड़े, नदी खलकै नीर। . विरह संतावै मो जसा, वलि सज्जन वेपीर ॥४॥ घटा बांधि वरसै जसा; छांट लगे खग भाई। इण रितु सजन बाहिरी, क्यू करि रयण विहाइ ॥५॥ काली काजल सारखी, घटा मंडाणी आज |
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy