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________________ ४०१ वर्षा वर्णनादि कवित्त . वर्षा वर्णनादि कवित्त । । प्रथम तपइ परभात, रगत चरणो रातम्बर पीड झरइ परसेद, अधिक मिस वरणो अम्बर उदक कुंभ उकलइ, निपट चिड़िय रज नाहइ वृषि चढ़इ विपधार, सगति मुख इंडा साहइ तुरत रिलवइ तिमरी चपल, घणु जीव हाकइ घणा जिनहरप चपल चात्रिग चवई, ए आरख वरसा तणा ॥१॥ मेह का कारण मोर लवइ फुनि मोर की वेदन मेह न जाणइ । दीपक देखि पतंग जरइ आंगि सो बहू दुख चित्त भइ नांणइ । मीन मरई जल कंइज विछोहत मोह धरइ तनु प्रेम पिछाणइ । पीर दुखी की सुखी कहॉ जाणत, सयण सुणइ 'जसराज' बखाणइ २ . सिंह के कौन सगा काहेकं मित्त ज्यं प्रीति न पालत प्रोति की रीति समूल न जाणइ । नेह करइ करि छेह दिखावत, सयण कुसयण उभय न पिछाणइ रोस करइ ज्युं विचार सनेह, सनेह पुरातन चीत न आणइ । सिंह कइ कवण सगा असगा, सवही सरखा 'जसराज' वखाणइ ॥३॥ . शृंगारोपरि सवैयाःगोरउ सउ गात रसीली सी बात, सुहात मदन की छाक छकी है। रूप की आगर प्रेम सुधाकर, रामति नागर लोकन की है। नाहर लंक मयंद निसंक, चलइ गति कंकण छग्यल तकी है। धुंघट की ओट में चोट करडु, 'जसराज' सनमुख आय धकी है ॥४॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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