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________________ [ ३३ ] सद्गुण और स्वर्गवास उपयुक्त दीर्घ रचना-सूची से स्पष्ट है कि आप निरन्तर साहित्य निर्माण में ही अपना समय व्यतीत करते थे। आप स्वाभाविक काव्यप्रतिभा सपन्न थे और आपकी लेखनी माविश्रान्त गतिसे चलती रहती थी। इसी प्रकार सयम साधना में भी आप निरतर उद्यत थे । आपके व्रत, निय. मादि अन्तिम अवस्था तक अखण्ड रहे। आपके अनेक सद्गुणों में गुणानुरागिता भी उल्लेखयोग्य है जिसके उदाहरण स्वरूप तपागच्छीय पन्यास सत्यविजय का निर्वाणरास बनाया। आप प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी अहङ्कार त्यागकर निर्लेप व निरपेक्ष रहते थे। अपनी रचनाओं में कही पाठक, वाचक या कवि शब्द तक का प्रयोग नहीं किया जिससे आपमें आत्म-श्लाघा या अभिमान का अभाव प्रतीत होता है। सवत् १७६३ से १७७६ (२) के बीच व्याधि उत्पन्न होने से आपकी सेवा सुश्रूषा तपागच्छीय मुनिराज श्री वृद्धिविजयजी ने बड़ी तत्परता से की और अन्तिम आराधना भी उन्होने ही करवायी थी। श्रावकों ने अन्तिम देहसंस्कार बडी भक्तिपूर्वक किया इस विषय में हमारा "ऐतिहासिक-जैन-काव्य सग्रह" देखना चाहिए । आपका स्वर्गवास पाटण में हुआ था सभव है वहां उनके चरणपादुके स्तूपादि भी हो तथा उनके संबन्ध में गीत, भास आदि ऐतिहासिक सामग्नी भी अन्वेषण करने पर प्राप्त हो । गुरु-भ्राता एवं शिष्य-परिवार आपके गुरु श्री शान्तिहर्षजी के आपके अतिरिक्त निम्नोक्त अन्य शिष्यों का उल्लेख पाया जाता है ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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