SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली माहरी छइ साहिबजी तुमनइ चीत जो । तुझ पाखड वाल्हेसर माहरइ को न छड् रे जो ॥४॥ सई कीधा छइ भव भव कम कठोर जो। किम कहिवायइ ते तउ कहतां लाजीयइ रे जो ॥ हुं अपराधी पग पग ताहरउ चोर जो। महिर करीनइ माहरा भवदुख भाजोयइ रे जो ॥५॥ पोताना सेवकनी प्रभु नइ लाज जो। सेवक नइ तउ लाज जनमका ए वात नी रे जो । नयण सलूणे जोज्यो सनमुख राजि जो। हुँ बलिहारी स्याम मनोहर तात नी रे जो ॥६॥ ते आगलि कहीयइ जे थाइ अयाण जो। जाण भणी स्यं कहीयइ जे जाणइ सहू रे जो ।। भव भव थाज्यो ताहरी आण प्रमाण जो। सिवपुर ना सुख जिम जिनहरख लहुं बहु रे जो ॥७॥ श्री पंचासरा पार्श्वनाथ स्तवन परम तीरथ पंचासरउ, जिहां सोहइ पास जिणंद हो। कर जाड़ी सेवा करइ, पदमावती नइ धरणिंद हो ॥ १ प० ॥ प्रभु मूरति देखि करी, मोरउ मन पामइ उल्लास हो। जिम केकी धन देखि नइ, मन हरपित थायइ तास हो ।। २१० ॥ मृरति नयणे जोवतां, चित चंचल थायइ लीन हो।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy