SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली भवियण पंचासरउ परतक्ष, एतउ सेवतां सुरवृक्ष रे । भ० । प्रभुता जेहनी अति घणीरे, सेवइ सुर नर दक्ष रे ।। २ भ० ॥ प्रभु मूरति मन मोहणी रे, मोहणगारउ रूप । जोतां तन मन ऊलस रे, सीतल नयण अनूप रे || ३ भ० ॥ हित वच्छल हीयड़ड़ वसई रे, जिम लोभी धन रासि । वीसांर्यु ं नवि वीसरह रे, निशि दिन मन प्रभु पासिरे ||४ भ० ॥ मुख राकापति सारिखी रे, अनुपम दीपड़ अंग । सोहइ सप्त फणावली रे, लंछण जास भुयंग रे || ५ भ० || प्रभु नयणे दीठां पछी रे, अवर न आवड़ मींट । लाल कीपर जिणि ग्राउ रे, तेहनइ न गमइ छींट रे || ६५ ० || अस्वसेन नृप कुल सेहरउ रे, वामा रानी नंद | कहइ जिनहरख जुहारतां रे, लहीयइ परमाणंद रे || ७ भ० ॥ श्री पार्श्वनाथ स्तवन राग || काफी प्राण सनेही प्रीतमा, म्हांरी एक अरज अवधारउ । सोम नजर करि साहिवा, भव जल निधि पार उतारउ ॥ १ ॥ - वीनतड़ी थे सुणिज्यो रे चाल्हा पासजी, म्हांरा मन ना वंछित सारउ म्हांरा भवना भ्रमण निवारउ, । वी० । ट हुं तुझ चरण कमल रसईरे, भमर तणी परि लीणउ । माहरी तुम नइ चींत छड़, कांइ दाखुं हुं हुइ दीनउ ॥२ वी० ॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy