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________________ १७२ जिनहर्ष-ग्रन्थावली आशा लूधा आवइ आदमी, ताहरी करिया रे सेव ।मो.। सेवा थी आशा सगली फलइ, तु जग मोटड रे देव ।।मो.४सु।। लोक सहु कलि जुगना स्वारथी, स्वारथ राचइ रे देखि | मो.। तुं स्वारथ सहुको ना पूरवइ, तिणि तुझ अधिकी रे रेख ।।मो.॥ अण तेड्या पावइ सुर नर घणा, नापड़ केहनइ रे ग्रास ।मो० तउ पिणि राति दिवस चरणे रहइ, खिणि मेल्हड़ नही रे पास ।६। मोहन सूरति अनमिप जोवतां, त्रिपति न नयणे रे होइ ॥मो०॥ घणा दिनसमा भूख्या लालची, हरपित थायइ रे जोइ ।मो.-७सु.। गुणवंता साहिवनी चाकरी, कीधी पहली रे न जाइ । मो०। पाथरसीनी पिणि सेवां कीयां, कांइक फल प्रापति रे थाइ मो.८ चिंतामणि पाहण पिणि पूरवइ, सेवा करतां रे रिद्धि । मो० । तउ प्रभु सेवाथी अचरज किसर, लहीया अविचल रे सिद्धि ।।। एक तारी करि रहीयइ एह सु, धरियइ एहनी रे आण । मो. । दास निवाजइ तर पोतातणा, हेजई न पडइ रे हाणि ।।मो.१०॥ सेना राणी राय जितारि नइ, निरमल जुल अवतंस । मो० । कहा जिनहरख हरख हीयडइ धरी, सोह वधारण रे बंसमो.११॥ श्री सुमतिनाथ स्तवन ढाल-तप सरिखउ जग को नही ।। एहनी ।। अरज सुरण जिन पांचमां, साहिब दीन दयाल हो, जिनवर । निज सेवक जाणी करी, करुणा करउ क्रिपाल हो, जिनवर १अ.। हुं चउगति दुख पीडीयउ, तुझ चरणे महाराज हो । जि० ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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