SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनहर्प ग्रन्थावली १४७ श्री आदिजिन वीनती आलोयणा स्तवन सुण जिनवर सेव॒जा धणी जी, दास तणी अरदास । , तुज आगल बालक परेजी, हुं तो करूं वेखास रे जिनजी । मुझ पापी ने तार । तूं तो करुणा रस भर्यो जी,तु सहुनो हितकार रे जिनजी ।१। हुं अवगुणनो झर...... 'गुण नो नहीं लवलेश । परगुण पेखी नवि शकुजी, केम संसार तरेस रे जिनजी ॥२मु.।। जीव तणा वध में का जी, बोल्या मृपावाद । कपट करी परधन हऱ्याजी, सेव्या विषय सवादरे जिनजी ।३मु. हुं लंपट हुं लालची जी, कर्म कीधां केई कोउ ... ...। त्रणभुवनमां को नहीं जी, जे आवे मुज जोड रे जिनजी ॥१४॥ छिद्र परायां अहनिशे जी, जोतो रहुँ जगनाथ । कुगति-तणी करणी करीजी,जोड्यो तेह शुं साथरे जिनजी।५मु. कुमति कुटिल कदाग्रही जी, वांकी गति मति तु .....। बांकी करणी माहरी जी, शी संभला तुझ्झ रे जिनजी।६। पुन्य विना मुज प्राणिउं जी, जाणे मेलुरे ाथ । उंचा तरुवर मोरीयां जी, त्यांही पसारे हाथ रे जिनजी ७मु.। विण खाधां विण भोगव्यांजी, फोगट कर्म बंधाय । आत ध्यान मिटे नहींजी, कीजे कवण उपायरे जिनजी ।।८।। काजल थी पण शामला जी, मारा मन परणाम ।' सोणा मांही ताहरू जी, संभारू नहीं नाम रे जिनजी मु.॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy