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________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १४५ श्री शत्रुञ्जय मंडण श्रीऋषभदेव स्तवन ढाल-मुख नई मरकलडइ ॥ एहनी॥ विमलाचल तीरथ वासी जी, मन रा मानीता । तुझ दरसण लील विलासी जी ॥ म ॥ तुझ मुख राकापति सोहइ जी ॥ म. ॥ । सुर नर नारी मन मोहइ जी ॥ म. १॥ जाणु प्रभु पासे निति रहियोजीमाप्रभु चरणकमल निति महीयइजी जउ महिरि साहिवनइ आवइजी,तउ साची प्रीति लगावइजी ।रम। । हितनयणे सनमुख निरखइजी |म। सेवक देखिनइ हरखइजी ।म। , सुसनेही नेह कहावइजी, पोतानइ पासि रहावइजी ॥३म।। आपण सूजे हित राखइजी।मादीन वयण आगलि रही भाखइजी तेहनइ नविछेह दिखालइजी, मोटा प्रीतड़ली पालइजी ॥४म।। तुझ सरिखा उपगारीजी म। उपगार करइ हितकारीजी ।म।। गुणवंत हुवइ गुण ग्राहीजी ।म। तेह सुमिलियई ऊमाहीजी।५म। ऊमाहउ सफलऊ कीजइ जी ।म। मनवंछित प्रभु सुख दीजे जी । सुखना ग्राहक सहु कोई जी ।म। तुम नइ कहीयइ गुण जोइजी ।६ सेवक ने स्वामि निवाजउजी ।म। भव अवनी भावठि माजउजी ।म। जिनहरख मनोरथ पूरउजी ।म। चित चिंता सगली चूरउजी ७म। ॥इति श्री शत्रुञ्जय मडण श्री रिखभदेव स्तवनं ॥ .
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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