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________________ १४४ आदिनाथ स्तवनानि चरण न मुकुहिवइ हुँ ताहरा रे, साहिवीयानी करिखं सेव रे । कहइ जिनहरप भवो भवे रे, म्हारई तु वाल्हेसर देव रे ७.। इति श्री शत्रुञ्जय अबुदनाथ स्तवनं श्री शत्रुजय आदिनाथ स्तवनम् सुणि सत्रुजयना सामी रोमनमोहन जी । पुन्यइ तुझ सेवा पामीरे। मुझ नयण कमल उलसीयारेमा दीदार निहालण रसीयारे ।म। - तुतउ मुझ मन मोहणगारु रे ।म। तुतउ मुझ नइ लागइ प्यारउ रे हुंतु राति दिवस संभारू रे ।म। तुझ दरसण हीयड़उ ठारू रे,२म तुझनइ हुँ कदीय न भूलइ रे ।मा निसि दिन हीयड़ा मे झूलइ रे।म। तुंतउ समता रसनउ दरीयउ रामागुण रयण अमोलिक मरीयउरे३ तोरी सूरति अजब विराजइ रे ।म। इंद्रादिक देखि लाजइ रे ।म। एहवउ किहां रूप न दीसइ रे ।म। जेहनइ देखी मन हीमइ रे ।४। तुझ पासइ मंत्र ठगोरी रे ।म। सहुना तुचितल्यइ चोरी रे मा नयणे एक बार निहालइ रे ।म। न वीसारइते किणि कालई रे । तुझ नाम तणइ बलिहारी रे मा वाल्हेसर तो परिवारी रे मा कहतां तउ लाज मरीझइ रे ।म। पिणि आप वराबरि कीजइ रेम श्री नाभि नरिंद कुल दीवउ रे ।म। मरुदेवा सुत चिरजीवउ रे ।मा सेवक जिनहरष निवाजउ रे म। जस पामउ त्रिभुवन ताजउरे । इति श्री शत्रुञ्जय प्रादिनाथ स्तवन । -0.
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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