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________________ १३२ आदिनाथ स्तवनानि सात छठि चउविहार करइ जे, दोइ अहम सुविवेक ॥ लाख गणइ नवकार मावसु । ते करइ भवनउ छेक ॥१०भा०॥ मोहणगारउ तीरथ सारउ, देखीनइ ऊमहीयइ ।। ए डूगर थी अलगा कहीयई, पाणी वल नवि रहीयइ ॥११भा०॥ रिपम जिणेसर नयणे देखी, जुगतई करइ-जुहार ॥ पूजइ जे हित सुंजिनवर नइ, ते लहइ सुक्ख अपार ॥१२भा०॥ जिन दरसण थी पाप पणासइ आगलि शिवपुर राज । ___ कहइ जिनहरष विमलगिरि यात्रा, थाज्यो मुगति ने काजिमा.१३॥ इति श्री विमलाचल मंडण श्री आदिनाथ स्तवनं । श्री शत्रुजय मंडण श्री रिषभदेव स्तवन - ढाल-जाटणीना गीतनी श्री विमलाचल मंडण रिपम जी, म्हारी विनतड़ी अवधारी। आव्यउ हूं प्रभु चरणे ताहरे , मुझ नइ भवसायर थी तारि॥१श्री।। तुं करुणाकर ठाकुर मांहरउ, तुं माहरउ सिर ताज । दरसण देखेवा हुं प्रावीयर, ऊमाहउ धरि मन मई आज ॥२श्री।। दरसण दीठउ मीठउ प्रभु तणउ, नीठउ सगला भवनउ पाप । आठ करम अरीयण थया दूवला, टलस्यइ जनम मरण संताप।३। दीनदयाल कृपाल कृपा करी, दीजइ मुझनउ अविचल राज । आप समान करउ सेवक भणी, जिम वाधइ तुझ लाज ॥ ४श्री ।। तु समरथ साहिब सिर माहरइ, हुं जउ पादुक्ख कलेस । तउ प्रभु नइ छइ लाज विचारिज्यो, सेवक लाज नही लवलेस ।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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