SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० उपदेश छत्तीसी करि कै कपट कोट खेल कै अतारी चोट, . धन मेलवे कूदोर दे कै काम साझै है । जाणै है मै जोरवर मोहूं सुन कोउ नर, - धन की कमाउ वर पिंड प्राण जाम है। काहुं कुकठोर पाप करि कै बंधावै आप, आपणी ही वुद्ध आपलूत जैसे बाझै है ॥२२॥ अथ एकत्व भावना कथन सवइया ३१ ___ काके कहौ घोरे हाथी काहू के सवल साथी, काको माल घरा भया देस गढ़ कोट रे । काहू के हिरण्य हेम काकी मृगनैणी पेम, तात मात भ्रात काके काके धोट जोट रे । काके छूने धवलहर मंदिर महिल काके, काहू के भंडार भरे एते सब खोट रे। कहै जिनहरख काहू के न का कौतुही, ताथै मन चेत चेत आयो धरम ओट रे ॥२३॥ अथ धर्म प्रीति कथन सवइया ३१ जैसी तेरी मति गति रहत एकाग्रचित, गति द्यौस दौरि दौरि हौस सु कुमाव है। रूप की धरणहार अपछर अणुहार, श्रेसी नारि देखि देखि जैसै मन ल्याव है ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy