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________________ १०२ उपदेश छत्तीस अथ लोभ स्वरूप कथन सवइया ३१ माया जोरि कुंजीव तलफत है अतीव, देस तजि जाय परदेस परखंड जूं । जंगली जिहाज बैंठौ जल निधि मांहि पैसे, लोभ को सरोय गा है गिर पर चंम जू । भूख सह प्यास सहै दुर्जन की त्रास सहई, तात मात भ्रात छोरि हाॅ खंड खंड जू । सो लोभी लोभ के लिये हैं दुख सह कोरि, कहैं जिनहरख न जांगें है त्रिभड जू ||५|| अथ क्रोध कथन सवइया ३१ को छोरि मेरे प्राणी कुगति की सहिनाणी, इहे वीतराग वांणी सुख सुणि लीजियें । क्रोध तैं सनेह छूटै मै प्रेम तै हू, क्रोध तें सुजस नांहि प्रथम गिणीजीयै । खंदक सरीस को क्रोधन तै देस दह्यो, तप सब हारि गयो वेद में सुगीजीयें । द्वारिका को कीनो दाह दीपायन क्रोध ठाह, सो क्रोध है जिनहरख न कीजिये ॥ ६ ॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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