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________________ वीशी काया धनुप विराजइ पांचसइ रे, सोवन वरण शरीर । आउ चौरासी पूरव लाख वखाणिये, ___ सायर जेम गंभीर ॥३वि.॥ बारह परपद आगलि उपदिशहरे, च्यारे धरम सुरङ्ग । लंछन वृषम सहु नै सोहता रे, दीठां मन उछरंग ॥४षिः।। त्रिकरण सूधे वीसे जिन संस्तम्या रे. वीसे गीत रसाल । गुणियण गायो मिलि मिलि वे जणा रे, झिलती मिलती ढाल । ५वि.।। मुनि लोपण वारिधि निसिपति (१७२७) समे रे, मधु सित आठम दीस । वाचक शान्तिहर्ष सुपसाउले रे कहै जिनहर्ष जगीश ॥६वि.।। इति श्री वीस-विहरमान-गीतानि समाप्तानि । संवत् १७२७ वर्षे निती ज्येष्ट बदि १० दिने ॥श्रीरन्तु।श्री।] १ नउ २ समवसरण माहे बैठा थका रे. ३ तवन ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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