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________________ ८० जिनहर्प-ग्रन्थावली तंइ कीधी काइ मोहनी, देखण तरसइ नइण लाल रे । वाल्हउ लागइ ताहरउ, दरसण वाल्हा सहण लाल रे ॥४॥ ठामे ठामे ठावका, देवल देवल देव लाल रे । पिणि ते मन माना नहीं, न करू तेहनी सेव लाल रे ॥५॥ सेवा कीजइ तेहनी, जे पूरइ मन आश लाल रे। सेवा फल लहियड नहीं, संग न कीजइ तास लाल रे ॥६.।। साहिब गुण परिमल भर्या, कहइ जिनहर्प विकाश लाल रे । वीजा सुर डहकावणा, फूल्या जाणि पलास लाल रे ॥७य.।। = कलश - [ढाल-कागलियउ करतार भणी सी परि लिखू -एहनी] विहरमान वीसे नित चंदिय रे, अढीयां दीपां मांहि । भवियण मन संदेह निवारता रे,सेवइ सुरनर पाय ॥१वि.।। ए बीसेइ सुरतरु सारिखा रे, मन वंछित दातार । भाव भगति इक चित्त आराधतां र, . - लहियइ भव जल पार रवि.।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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