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________________ बीशी रोम रोम मुझ ऊलस्या रे, अंग अधिक उच्छाहि ॥१॥ जगतगुरु सुणि महाभद्र जिणंद। प्रभु सुलागी मोहनीजी, जेम चकोरां चंद जि.in. जाणु प्रभु संइमुख मिल्याजी, भागी अंतर वाड़ि । मुझ मन रलियाइत थउ जी,हिचइ ई केहनइ पाड़ि रज. रे हियड़ा तु दउड़तो जी, जेहनइ मिलिवा काज । ते साहित्र आवि मिल्या जी, पाम्यउ' त्रिभुवन राज ॥३ज.।। जेहनी बाट निहालतउ जी, धरतउ निश दिन ध्यान । ते परतखि दीठा सही जी, महिमा मेरु समान ॥४ज.।। मन मानीता मीत सु जी, केही कीजइ कांणि । कहतउ कहतउ वातड़ी जी, हियड़ा संक म आणि ।५ज.। साहिव नंड गुदराइतु जी, निज सुख दुख नी वात । इम चिन्तवतां जागियर जी, ततखिण मन मुरछात।६ज.। जउ सुहणे आवी मिलो जी, परतखि न मिलो काइ । कहइ जिनहर्प अक्यारथा जी, तुझ विण जे दिन जाई ।।७ज.।। देवयशा-जिन-स्तवन [ ढाल-के के ईश्वर लाधउ-एहनी] श्री देवयशा श्रवणे सुण्यो. १ पामिसि हिवइ शिव ! २ साहिब कचरणवान । ३ उगरणीसमउ ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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