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________________ ६६ जिनहर्ष ग्रन्थावाली गरज न का जिणसु सरह, कीजड़ ऊभा ऊभा ऊभ जुहार । साहिब तुम विरण को नही, म्हांरा मनरउ मान्यउ मीत । कes 'जिन' निवाहिज्यो, मुझ सेती सेती अविहड़ प्रीत | अनन्तवीर्य - जिन - स्तवन [ ढाल - हिवरे जगत गुरु शुद्ध समकित नीमी प्रापियइ ] आज ऊमाही जीभड़ी, होजी करिवा प्रभु गुण ग्राम । जन्म सफल' माहरउ हुसी, होजी हियड़ड़ धरतां नाम ॥१॥ हिव रे सखाइ श्री अनंत - वीरज थासी माहरउ जी । तउ फलिसी हो मुझ यश जगीश कि, दिवस हुसी मुझ पाधरउ जी ॥२॥ मोटां नी मीटर करि, होजी सीझड़ सगला काज | फल मनोरथ मन तणा, होजी जउ तू सह महाराज || ३ हि. || मोटा तर विरचइ नहीं, होजी कदेय न दाखड़ छेह | सा पुरसा री प्रीतड़ी, होजी पाथर केरी रेह ॥ ४ ॥ हि । I हिला न किया था, होजी तुझ विणि जे दिन जाइ । श्राशा लूधां सेवकां, होजी दरसण न दियइ कांइ ॥ ५ हि . ॥ उ' ही कां सु करइ, होजी इवड़ी खांचा ताण | , हेज हीयाली दे' मिलउ, होजी हियड़ड़ करुणा आण ॥ ६ हिं. ॥ १ सफला थास्यइ हिवे । २ यु । "
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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