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________________ जिनहर्प-ग्रन्थवाली नवला सेवक पासइ राखउ, छिह कदे मुझ नइ मत दाखउहो। तु ही ज साजण सयण सनेही, तुझ उपरि वारू मुझ देही हो ॥४प्रा.॥ . प्राण करूं कुरवाण अम्हीणा,साहिव सूरति सुलय लीणा हो जिण दिन देखीस सूरत नइणे, दाखिस निज वातडीयां चरणे हो ।प्रा.॥ सेवक नइ दीदार दिखावउ, वइगा हुइ नइ वार म लावउहो । इवडी ढील कहर किम कीजइ, पोताना जाणी सुख दीजइ हो ॥६प्रा.।। आइ सकुनहीं हुँ तुझ तीरइ, दूरि थकी बलिहारी प्रभुजी रइहो कहह जिनहर्प किसी पर कीजइ, मिलीयां विण किम प्राण पतीजइ हो ।।७प्रा.।। वाहु-जिन-स्तवन [ढाल-झीणा मारू लाल रगावउ पीया चूनडी, एहनी] तु तउ सायर सुत रलियामणउ, थाहरउ अमीय भर्यो छह गात । १. सेवक जाणी पासइ राखड़, वयग सु शीतल प्रभुजी भाखउ हो। २, परतखि भावी दरसण दीजे हो । ३. इहा थी पाय नमू प्रभुजी रे हो । ४. पाख हुवइ त उ ऊडी मिली जइ हो। .
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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