SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीशी ५६ रंग विदरंग न हुवइ कदे जी, अधिक अधिकी सदा दीठ ॥६सा.॥ - राजि पुखलावती हुँ इहां जी, भेटीयइ किण परि पाव । कहइ' जिनह म वीसारिज्यो जी, अउहीज' लाख पसाव ॥७सा.।। युगमंधर-जिन स्तवन [ ढाल-सहीया सुरताण लाडउ आवइलउ, एहनी ] प्राण सनेही जुगमंधर सामी, वीनती सुणउ प्रणमुसिरनामीहो मुझ हीयडउ हेजइ गहगहीयउ, चरण कमल भेटण ऊमाहीयउ हो ॥१प्रा.॥ भाखर भीति गिणइ नही काइ, आवइ तारइ पासि सदाइ हो । मनडउ जाणइ जाइ मिलीजइ, दोइ कर जोड़ी सेवा कीजइ हो ॥२प्रा.।। तु साहिब हुँ सेवक तोरउ, वाल्हेसर तुप्रीतम मोरउ हो । 'नवली प्रीति प्रभु सु लागी, रागी सुमत थाज्यो नीरागी हो ॥३प्रा.।। १ प्रभु । २ एतलइ । ३ मिलिवा मुझ हीयडउ गहगहीयउ । ४ प्रीति परम गुरु तुम सु लागी।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy