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________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली मुज करणी माटी हो सी संभलावीयइ । मावीत्रां प्रागलि हो, काउ पिणि चाहीयइ ।६।। म्हारा मनमां घोपउ हो, स्यु थास्यइ हिवइ । दुख पामिसी बहुला हो, हुँ तउ भव भवई ॥७॥ पिणि सरणउ सरलउ हो, महाभद्र तुम तणउ । जिनहरप समापउ हो, सिवसुप अतिवणउ ।' देवयशा-जिन-स्तवन [डालसामू काठाहे गहुँ पिसावि, आपण जास्या मालवड, सोनारि भरगइ, एहनी ] कंता सुणि हो कहुं एक बात, आपण जास्यु प्रेमसु, गोरी एम लणइ । चालंभ देवजसा जिनराय, घरको नमीयइ पेमत्यु ॥गो।। एतउ विचरइ हो विदेह मझारि, नरनारी प्रति बृझवदागो। उगणीसमउ साहिब सुजाण, बाणी अमृतधारा श्रम ॥गो२।। कंता एहनउ हो रूपनिहालि,नयण पाल कीज आपणा|गो कंता प्रभुना हो अतिसय जोइ, करम सलूला कापणा ॥३॥ कंता रमित्यु हो राम सुरंग, प्रभु प्रारबलि ऊमा रही यो। आपण करिस्यु हो जनस प्रमाण, गायु प्रभु गुण गहगही।४|| पंता एहनउ हो सुरभ मरीर, कपल तणी परिसहइ गो। कंता एहनउ मोहनरूप, देपी मुक मन अमहइ ।।५।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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