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बीशी
३६ - सुबाहु-जिन-स्तवन ढाल-आवउ गरबा रमीयइ रूडा रामस्यु रे ।एदेशी।
चउथा रे विहरमाण विहरता रे । काइ आव्या इणि नगर मझारि रे, आवउ नइ रे जईयइ जिन नइ वांदिवां रे ।
समवसरण देवे रच्यां रे,
काइ कहितां नावइ तेहनउ पार रे । आवउ नई रे जईयइ जिन नइ बांदिवा रे, म्हारउ साहिबीयउ सुबाहु सुजाण रे । लोकालोक प्रकासतउ रे,
म्हारा साहिबीया नउ निरमल नाण रे,
म्हारउ साहिवीयउ जीवन प्राण रे ॥१।। बारइ रे जेहनइ परपदा रे, ते तल बइठी निज निज ठाम रे ।आ।
गणधर वैमानिक सुंदरी रे,
कांई साधवी अगनि कूणि नाम रे ॥२॥ नैरति कूणि भुवनपती रे, काई योतिषी वितरनी नारी रे (आ.!
वायव कूणि वपाणीयइ, कांई बइठा तेहना भरतार रे ॥३॥