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________________ (८२) (१९७) राग-ईमन धीमो तेतालो। तुम सुध आयें मोरै आनंदकी उठत हियरा चाह हां ॥ तुम० ॥ टेक ।। तेरे नामके जापका, फल आगम लेखा। सिंह स्याल वानर तरे, कहुं कोलौं विसेखा ॥ तुम० ॥१॥ अपने जियके काजका, कोई नाहीं देख्या । तुमही हो प्रभु एकले, मैं सब विधि पेख्या ॥ तुम० ॥२॥ ( १९८) राग-बरवा। अव तेरीसुनि वातड़ी,चुप रहौ रे जिया, धंधा रेकरता' ॥अव०॥टेक॥ काल अनन्त निगोदमें, भरम्या इम भाई।। अष्टादश भव सांसमै, धारे दुखदाई ॥ अव० ॥१॥ पुनि विकलत्रय ऊपज्या, पुनि हुआ असैनी । अव सैनी मानुप भया, पाया कुल जैनी ॥ अव० ॥२॥ अशुभ किये है नारकी, नाना दुख पावै । शुभतें सुरगन सुख लहै, आगम इम गावै ॥ अव०॥३॥ दोउ शुभाशुभ त्यागिकैं, अपना पद ध्यावें। वुधजन तव थिरता लहै, फिर जन्म न पावै ॥ अव०॥४॥ ( १९९) ___ राग-सिंधड़ा। तू तो है ज्ञानमैं नाहीं तन धनमैं ॥ तू० ॥ टेक ॥ सपरस गंध वरन रस रूपी, जानपनौं नहिं इनमें ॥ तू० ॥१॥ पर-परनति परनति करवतें,भ्रमत फिरत है गतिन ॥तू० ॥२॥ विन आवरन स्वच्छ जव है है. तव १६ट। - -
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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