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________________ (८१) ( १९४) थे चितचाहीदा नजरूं आया ॥ थे०॥ टेक॥ निशिदिन ध्यावां नीवे मंगल गावां हरषावां चरनन पूज रचाया ॥ थे०॥१॥ अव नहिं विसरूं जी वे ये वर दीजे सुन लीजे वुधजन सरना पाया । थे० ॥२॥ (१९५) राग-ईमन जल्द तितालो। शरनगही मैं तेरी,जगजीवन जिनराज जगतपति।।शर० ॥ टेक ॥ तारन तरन करन पावन जग, हरन करम भवफेरी ॥ शरन० ॥१॥ ढूंढ़त फिस्यौ भखौ नाना दुख, कहुँ न मिली सुखसरी । यात तजी आनकी सेवा, सेव रावरी हेरी ॥ शरन० ॥ २ ॥ परमैं मगन विसाखौ आतम, धस्यो भरम जगकेरी । ये मति तजूं भजू परमातम, सो वुधि कीजे मेरी ॥ शरन० ॥३॥ (१९६ )२ __ करमूंदा कुपेंच मेरे है दुख दाइयां हो । करमूंदा० ।। टेक ॥ करमहरन महिमा सुनि आयो, सुनिये मैड़ी साइयां हो । करमूंदा० ॥१॥ कवहुंक इंद नरिद वनायौ, कवहुंक रंक वनाइयां । कवहुंक कीट गयंद रचायौ, ऐसे नाच नचाइयां ॥ करमूंदा० ॥२॥ जो कुछ भई सो तुमही जानौं, मैं जानत हूं नाइयां । कर्मबंध तुम काटे जाविधि, सो विधि मोहि दिवाइयां ॥ करमूंदा० ॥३॥ १ चित्त जिनको चाहता था, ऐसे आप दिखलाई दिये। २ काँका । ३ मेरी। -
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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