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________________ ( ९१ ) ( २०० ) निज कारज क्यों न कियौ अरे हे जिया तैं, निज देख्यौ धारौ यौ नसीब हे जिया तैं । निज० ॥ टेक ॥ या rasi सुरपति अति तरसै, सहजै पाय लियौ ॥ निज० ॥१॥ मिथ्या जहर कह्यौ गुरु तजिचौ, तैं अपनाय पियौ । दया दान पूजन संजममैं, कवहॅू चित न दियौ ॥ निज० ॥ २ ॥ बुधजन औसर कठिन मिल्यौ है, निश्चय धारि हियौ । अव जिन- ' मत सरधा दिढ़ पकरौ, तब है सफल जियौ ॥ निज० ॥३॥ ( २२१ ) तेरौ आवत नीड़ो काल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरौ ० ॥ टेक ॥ जोवन गयौ वुढापौ आयौ, ढीली पड़ गई खाल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरौ ० ॥ १ ॥ घरी घरी कर वीतत वैरसैं, करि है सब पैमाल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरौ० ॥ २ ॥ भोग व्यसनमैं दिन मत खोवै, वूड़ेगौ जग जाल ॥ तेरौ ० ॥ ३ ॥ परकौं त्यागि लागि शुभ मारग, बुधजन आप सम्हाल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरो ० ॥ ४ ॥ ((२२२ ) समझ भव्य अव मति सोवै रे, उठ रे सोवत जनम गयौ तोकौं ॥ समझ० ॥ टेक ॥ काय कुटी तौ टूटि गई है, क्यों नहिं जोवै रे । कुंजर काल गहै तब तेरा, क्या वश 'हो रे ॥ समझ० ॥ १ ॥ अनंत काल थावर त्रस जीवामाहीं खोवै रे । अव पुरुषारथ करिवेकौ दिन, सो क्यों १ निकट - नजदीक । २ वर्षे - सालें ।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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