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________________ (९०) (२१८) राग-सोरठ। मिनखगति निठी मिली छै आय ॥ मिनख० ॥ टेक ॥ । काकताल किधी अंधवटेरी, उपमा कौन बनाय ।। मिनख० ॥१॥ पूरन विपति नरकगतिमाही, ज्ञान पशू नहिं पाय। देव ऊंचपदहमैं जांचे, कधि उपजौं नर आय ॥ मिनख० ॥२॥ यह गति दान-महातपकारन, अजरअमरपददाय । सो ही भोग व्यसनमै खोवै, अमृत तजि विष पाय ॥ मिनख० ॥३॥ जल अंजुलि ज्यौं आयु घटत है, करिलै वेगि उपाय । बुधजन वारंवार कहत है, शठसौं नाहिं बसाय || मिनख०॥४॥ (२१९) राग-सोरठ। प्रभु थांका वचनमैं बहुत वनै छै रडी ।। प्रभु० ॥ टेक ।। अशुभ भाव सहजै मिटि जै हैं, मिटि जै हैं सव ही गति कूडी ॥ प्रभु०॥ १ ॥ विषय मगन जिन वचन अपूठे, तिनकी सब विधितै मति बूड़ी। सरधा करि मुनि वचन सुनत ही, सुख पायौ निंदक हू चूड़ी ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ दया दान भवि बँलध्या जोते, संवर तप हल धारै जूड़ी। धर्म खेतमैं मोक्ष धान लै, सहज मिलै विधि सुरगति तूंडी ॥प्रभु० ॥३॥ १ मनुष्यगति । २ कठिनाईसे। ३ सुन्दरता । ४ खोटी। ५ उलटे । ६ चाहालिनीने । ७ वैल । ८ जूआ। ९ तुष-पंयाल ।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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