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________________ जैनपदसंग्रह ७०. राग दीपचन्दी धनाश्री। तू स्वरूप जाने विन दुखी, तेरी शक्ति न हलकी वे ॥टेक ॥ रागादिक वर्णादिक रचना, सोहै सब पुगलकी वे ॥ तू स्व० ॥ १ ॥ अष्ट गुनातम तेरी मृ. रति, सो केवलमें झलकी वे ॥ तू स्व० ॥२॥ जगी अनादि कालिमा तेरे, दुस्त्यज मोहन मलकी वे ॥त स्व० ॥३॥ मोह नसे भासत है मूरत, पँक नसें ज्यों जलकी वेतृ स्व०॥ ४॥ भागचन्द सो मिलत ज्ञानसों, स्फूर्ति अखंड स्ववलकी वे ॥ तू स्व० ॥५॥ राग दीपचन्दी। महिमा जिनमतकी, कोई वरन सकै बुधिवान ॥ टेका काल अनंत भ्रमत जिय जा विन, पावत नहिं निज थान ॥ परमानन्दधाम भये तेही, तिन कीनों सरधान ॥ महिमा० ॥१॥ भव मस्थलमें ग्रीषमरितु रवि, तपत जीव अति प्रान । ताको यह अति शी. तल सुंदर, धारा सदन समान ॥ महिमा० ॥२॥ प्रथम कुमत वनमें हम भूले, कीनी नाहिं पिछान । भागचन्द अब याको सेवत, परम पदारथ जान ॥. महिमा ॥३॥
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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