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________________ -द्वितीयभाग | ३९ पुरन्दर पूजन आये, सुन्दर ' पुन्य उपाया । भागचन्द मम प्राननाथ सो, और न मोह सुहाया || गि० ॥३॥ હ્રદ राग दीपचन्दी परज | are भये ब्रह्मचारी, सखी घर मैं न रहोंगी ॥ टेक ॥ पाणिग्रहण काज प्रभु आये, सहित समाज अपारी । ततछिन ही वैराग भये है, पशुकरुना डर धारी ॥ नाथ० ॥ एक सहस्र अष्टलच्छनजुत, वा छविक बलिहारी । ज्ञानानंद मगन निशिवासर, हमरी सुरत विसारी ||नाथ ||२|| मैं भी जिनदीक्षा परि हाँ अबजाकर श्रीगिरनारी । भागचन्द हमि भनत सग्विनसों, उग्रसेनकी कुमारी ॥ नाथ ०॥ ३ ॥ ६९ राग दीपचन्दी कानेर | - जानके सुज्ञानी, जैनवानीकी सरधा लाइये ॥टेक॥ जा विन काल अनंते भ्रमता, सुख न मिले कहू पानी !! जानके० ॥ १ ॥ स्वपर विवेक अखंड मिलत जाहीके सरवानी || जानके० ॥ २ ॥ अस्त्रिलप्रमानसिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी ॥ जानके ० ॥ ३ ॥ भागचन्द सत्यारथ जानी, परमधरमरजधानी || जानके० ॥ ४ ॥ ·
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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